आज की कहानी उनके लिए जो सभी सुख, संपत्ति और असंख्य धन कमाना चाहते है, परंतु फिर कैसी दशा होती है इस कहानी से सीखे...... धन की इच्छा रखने वालो प्यारे यह कहानी आप के लिए... जरूर पढ़े एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान ने कहा कि तुम यहाँ क्या छोटी-मोटी खेती में लगे हो। साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहाँ जमीन इतनी सस्ती है मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन छोड़-छाड़कर, बेच-बाचकर साइबेरिया चले जाओ। वहाँ हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहाँ करो फसलें और बड़ी उपयोगी जमीन है और लोग वहाँ के इतने सीधे-सादे हैं कि करीब-करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं। उस आदमी को लालच जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया की राह पकड़ी। उसने पहुंचकर पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो; और बेचने का तरीका है कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना। साँझ सूरज के डूबते-डूबते उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे- बस यही शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी। रात-भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते;रातभर योजनाएँ बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूँ। सुबह ही भागा। गाँव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में चलते ही चलते खाना भी खा लूँगा, पानी भी पी लूँगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है; दौड़ना है। दौड़ना शुरू किया, क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊँगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी – भागा …भागा। सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पड़ूँगा; ताकि सूरज डूबते – डूबते पहुँच जाऊँ। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर लालच का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन…थोड़ी सी और घेर लूँ। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय – इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा। उसने पानी भी न पीया; क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर – एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ा रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं पा रहा है। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी, जितना निर्भार हो सकता था हो गया। एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और-और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक वो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हाँफ रहा था, घबरा रहा था कि पहुँच पाऊँगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दाँव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा…। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है; लोग दिखाई पड़ने लगे। गाँव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे-सादे लोग हैं – सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊँ, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ! उसने आखिरी दम लगा दी – भागा – भागा…। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर वो भाग रहा है…। सूरज डूबते – डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पाँच – सात गज की दूरी रह गई है, घिसटने लगा। अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई. घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था, उस खूँटी पर, सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा, यहाँ यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय का दौरा पड़ गया। और सारे गाँव के सीधे – सादे लोग जिनको वह समझाता था, हँसने लगे और एक – दूसरे से बात करने लगे! ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं! यह कोई नई घटना न थी; अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुनकर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था; यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो। यही तो तुम कर रहे हो प्यारे – दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! लौटने का भी समय होने लगता है – मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है। जीने का समय कहाँ है; पहले जमीन घेर लें, तिज़ोरी भर लें,रुपया इकट्ठा हो, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता।जीवन मुफ्त नहीं मिलता सदैव प्रसन्न रहिये!!! जो प्राप्त है-पर्याप्त है!!!


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*ताला चाबी से भी खुलता है और हथौड़ा से भी। लेकिन चाबी से खुला ताला बार-बार काम आता है और हथौड़ा से खुला ताला केवल एक बार।* *संबन्धों के ताले को क्रोध के हथौड़े से नहीं बल्कि प्रेम की चाबी से खोलें।*

🏵️ रावण के पैर के नीचे का आध्यात्मिक रहस्य 🏵️👉रामायण देख रहे हमारे कई पाठकों के कई प्रश्नों में से एक अहम प्रश्न है कि रावण का जब सिंघासन दिखाया जाता गई,तो रावण के पैरों के पास कोई लेटा रहता है, जिस पर रावण पैर रखता है, वो कौन है ? और रावण के पैरों के नीचे क्यो रहता है ?तो आइए इस प्रश्न के उत्तर को शनि संहिता के अनुसार जानने का प्रयास करते हैं ।कथा के अनुसार लंका का राजारावण निःसंदेह एक महान योद्धा था। उसने अपने शासन में सातों द्वीपों को जीत लिया था। उसे ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था। उसने देवताओं को परास्त किया और नवग्रह उसके राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। यहाँ तक कि वो शनि के सर पर अपना पैर रख कर बैठा करता था। यहाँ तक कि उसने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था। उसका वीर रूप ऐसा था कि उसके साथ अपने अंतिम युद्ध करते समय स्वयं श्रीराम ने कहा था कि आज रावण जिस रौद्ररूप में है कि उसे पराजित करना समस्त देवताओं के साथ स्वयं देवराज इंद्र के लिए भी संभव नहीं है। अपने अहंकार के मद में रावण ने शनि लोक पर चढ़़ाई कर दी और शनिदेव को महाकाल सहित बंदी बना लिया । उसने दोनों को अपने कारावास/पैरों में उलटा लटका कर बंदी बना लिया। वे दोनों अश्रु्धारा बहाते हुए अपने प्रभु शिव का स्मरण करने लगे तब भगवान शिव अपने भक्तों की करुण पुकार सुनकर प्रकट हुए और दोनों को आश्वस्त किया कि वे शीघ्र ही हनुमान के रुप में उनका उद्धार करने आएगें । इ्धर जब रावण का अत्याचार बढ़ने लगा तो भगवान विष्णु ने उसका संहार करने के लिए राम के रुप में और लक्ष्मी ने पृथ्वीपुत्री सीता के रुप में अवतार लिया । कालांतर में जब राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु वनवास लिया तो उनके साथ पृथ्वीपुत्री सीता व अनुज लक्ष्मण वन में रहने लगे।एक दिन रावण की बहन शूर्पनखा वहां आई और अपनी राक्षसी माया फैला कर राम- लक्ष्मण को यु़द्ध के लिए प्रेरित किया । यु़द्ध में रावण के खर, दुषण व त्रिशिरा जैसे शुरमा मारे गए। बदले की भावना से रावण ने सीता का छल से अपहरण कर लिया और लंका में अशोक वाटिका में छुपाकर रख दिया। उन्हीं दिनों राम- लक्ष्मण की भेंट रुद्रावतार हनुमान से हुई और फिर सीता की खोज शुरु हुई। हनुमान सीता की खोज के लिए समुद्र पार करके लंका में प्रवेश किया और अशोक वाटिका में छुपाकर रखी सीता को खोज निकाला । सीता से मिलने के बाद हनुमान ने अशोक वाटिका फल खाने लगे और विनाश मचा दिया । हनुमान को रोकने के लिए रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा । लेकिन हनुमान ने अक्षय कुमार को मार डाला । अंत में मेघनाद ने हनुमान को ब्रह्रापाश में जकड़कर रावण के समक्ष उपसिथत कर दिया और रावण ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगा दी । हनुमान जी ने अपनी पूंछ से लंका का वि्ध्वंस कर दिया । लेकिन हनुमान जी ने देखा लंका जलने पर भी श्याम वर्ण नहीं हुई । तभी उनकी दॄष्टि रावण के कारावास/पैरों में उलटे लटके शनिदेव पर पड़ी । तब शनिदेव ने अपनी व्यथा हनुमान जी को सुनाई और रावण ने उनकी शक्ति को भी कीलित कर दिया है। हनुमान जी ने शनिदेव को मुक्त कर उनकी शक्ति का उत्कीलन कर दिया ।उलटि पलटि लंका सब जारि। फिर तो हनुमान जी के प्रताप व शनिदेव की दॄष्टि पड़ने पर लंका जल कर राख हो गई।इसके बाद राम- रावण यु़द्ध में रावण का अपने वंश सहित विनाश हो गया । बाद में हनुमान जी ने महाकाल और शनिदेवता को रावण के चंगुल से मुक्त करा दिया। हालांकि कुछ विद्वानों का मत है कि शनिदेव को संपूर्ण मुक्ति रावण की मृत्यु के बाद ही मिली थी ।तब शनिदेव हनुमान जी से बोले , “हे महावीर ! मैं आपका सदा ऋणी रहुंगा।” तब हनुमान जी ने शनिदेव दिव्य दॄष्टि प्रदान कर अपने रुद्र रुप के दर्शन कराये। उस समय शनिदेव ने हनुमान जी के चरण पकड़ लिए और प्रेम के अश्रु बहाने लगे। शनिदेव ने हनुमान जी से कहा कि प्रभु मैं आपके भक्तों को कभी भी पीडि़त नहीं करुंगा । जो मनुष्य इस कथा पढ़ेगा या श्रवण करेगा, मैं सदा उसकी रक्षा करुंगा।जय शनिदेव 🚩जय बजरंग बली 🚩जय श्रीराम 🚩प्रेम से बोलिये जय श्री राम

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी .... ! गिद्ध , कुत्ते , सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में *द्वापर का सबसे महान योद्धा* *"देवव्रत" (भीष्म पितामह)* शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था -- अकेला .... !तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची , "प्रणाम पितामह" .... !!भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी , बोले , " आओ देवकीनंदन .... ! स्वागत है तुम्हारा .... !! मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था" .... !!कृष्ण बोले , "क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप" .... !भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले," पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव ... ? उनका ध्यान रखना , परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है" .... !कृष्ण चुप रहे .... !भीष्म ने पुनः कहा , "कुछ पूछूँ केशव .... ? बड़े अच्छे समय से आये हो .... ! सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय " .... !!कृष्ण बोले - कहिये न पितामह ....! एक बात बताओ प्रभु ! तुम तो ईश्वर हो न .... ?कृष्ण ने बीच में ही टोका , "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं ... मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह ... ईश्वर नहीं ...." भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े .... ! बोले , " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे .... !! "कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले .... " कहिये पितामह .... !"भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया ! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या .... ?" "किसकी ओर से पितामह .... ? पांडवों की ओर से .... ?" " कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया ! पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था .... ? आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार , दुःशासन की छाती का चीरा जाना , जयद्रथ और द्रोणाचार्य के साथ हुआ छल , निहत्थे कर्ण का वध , सब ठीक था क्या .... ? यह सब उचित था क्या .... ?" इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह .... ! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया ..... !! उत्तर दें दुर्योधन, दुःशाशन का वध करने वाले भीम , उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन .... !! मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह .... !! "अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण .... ? अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है .... ! मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण .... !" "तो सुनिए पितामह .... ! कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ .... ! वही हुआ जो हो होना चाहिए .... !""यह तुम कह रहे हो केशव .... ? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ....? यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया ..... ? " *"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है .... !* हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है .... !! राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था .... ! हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह .... !!"" नहीं समझ पाया कृष्ण ! तनिक समझाओ तो .... !"" राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह .... ! राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था .... !! तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण, मंदोदरी, माल्यावान जैसे सन्त हुआ करते थे ..... ! तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे .... ! उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था .... !! इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया .... ! किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं .... !! उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह .... ! पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो .... !!" "तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव .... ? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा .... ? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा ..... ??"*" भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह .... !* *कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा .... !* *वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा .... नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा .... !* *जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह* .... ! तब महत्वपूर्ण होती है धर्म की विजय , केवल धर्म की विजय .... ! *भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह* ..... !!""क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव .... ? और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ..... ?" *"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह .... !* *ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ..... !*केवल मार्ग दर्शन करता है* *सब मनुष्य को ही स्वयं करना पड़ता है .... !* आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न .... ! तो बताइए न पितामह , मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या ..... ? सब पांडवों को ही करना पड़ा न .... ? यही प्रकृति का संविधान है .... ! युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से .... ! यही परम सत्य है ..... !!"भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे .... ! उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी .... ! उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है .... कल सम्भवतः चले जाना हो ... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण .... !"*कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था* .... !*जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है ....।।*धर्मों रक्षति रक्षितः*