वडोदरा के पास एक गांव, गांव में कृष्ण भगवान के परम भक्त ऐसे मनसुख मास्टरजी स्कूल में बच्चों को बहुत अच्छे से पढ़ाते अच्छी शिक्षा के साथ साथ बच्चों में अच्छे संस्कार देते । प्रभु का हर पल चिंतन करते रहते । मनसुख मास्टरजी हर पूनम को डाकोर ठाकुरजी के दर्शन के लिए जाते । स्कूल में उन्होंने बच्चों को इतना होशियार बना दिया था कि जिस दिन मास्टरजी ठाकुरजी के दर्शन के लिए जाते उस दिन कोई एक बच्चा स्कूल के सभी विद्यार्थियों को बहुत अच्छी तरह से पढाता । इस प्रकार अच्छी तरह से स्कूल की नौकरी और ठाकुर जी की भक्ति से मनसुख मास्टरजी का जीवन चल रहा था ।गांव के कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने वडोदरा के शिक्षणाधिकारी से मनसुख मास्टरजी की शिकायत की कि हमारे गांव के मास्टरजी बच्चों को पढ़ाने के बदले डाकोरजी ठाकुर दर्शन के लिए चले जाते हैं जिससे बच्चों की पढ़ाई खराब होती है ।दो बार जांच करने के लिए शिक्षणाधिकारी की आफिस से कुछ साहब आए पर उस दिन पूनम न होने के कारण मनसुख मास्टरजी स्कूल में हाजिर थे और स्कूल की प्रार्थना और बच्चों की पढ़ाई और संस्कार देखकर जांच अधिकारी बहुत खुश हुए और ईनाम के रूप में पगार बढ़ाते गये ।गांव के लोगों को जब इस बात का पता चला तो सभी ने निश्चय किया फिर से शिकायत की जाय इस बार स्पष्ट शब्दों में पूनम के दिन जांच की जाए ऐसा लिखा गया जिससे मास्टरजी हाथों-हाथ पकड़ें जाय और इस बार शिक्षणाधिकारी स्वयं जांच के लिए आए इस पर जोर दिया गया ।पूनम के दिन सुबह की पहली ट्रेन में मास्टरजी डाकोरजी ठाकुर दर्शन के लिए निकले गये । दूसरी ओर ठीक 11 बजे स्कूल में जांच के लिए शिक्षणाधिकारी साहब गांव में आए । गांव के लोगों ने शिक्षणाधिकारी साहब का स्वागत किया । मास्टरजी की पत्नी को जब इस बात का पता चला गांव में जांच के लिए साहब आएं हैं और मास्टरजी ठाकुर दर्शन के लिए गए हैं । तुरंत वह दौड़ती दौड़ती घर में गयी ठाकुर जी की मूर्ति के समक्ष घी का दीपक जलाया और और ठाकुर जी से कहने लगी हे रणछोड़ राय मेरे पति की नौकरी चली जाए उसकी मुझे कोई चिंता नहीं पर कल सुबह जब यह बात सभी को पता चलेगी तो आप पर कौन भरोसा करेगा । हे ठाकुरजी हमारी लाज रखना । दूसरी ही क्षण डाकोर के ठाकुरजी की मूर्ति में से साक्षात ठाकुरजी अपने भक्त की लाज रखने के लिए मनसुख मास्टरजी का रूप धारण कर गांव की स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लग गये । जैसे ही गांव के लोग और शिक्षणाधिकारी जांच करने के लिए आए उन्होंने देखा मास्टरजी आंखें बंद करके कृष्ण की प्रार्थना गा रहे हैं और बच्चे उतनी ही सुंदरता से उनके पीछे पीछे गा रहें हैं । प्रार्थना पूरी होने के बाद मास्टरजी के रूप में आए भगवान ने कहा साहब मुझे पहले खबर कर दी होती तो आप सभी के स्वागत की अच्छे से तैयार करता । शिक्षणाधिकारी ने बच्चों से प्रश्न पूछे होशियार बच्चों ने सभी प्रश्नों का विस्तार से अच्छे जवाब दिए । बच्चों की शिक्षा और संस्कार देखकर शिक्षणाधिकारी साहब बहुत खुश हुए । शिक्षणाधिकारी साहब ने इनाम के रूप में पगार में बढ़ोतरी और एक इन्क्रीमेंट देने की घोषणा की । गांव के लोग अंदर ही अंदर जल कर राख हो गये । सही घटना तो अब घटती है, शिक्षणाधिकारी खुश होकर वडोदरा जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पहुंचते हैं अचानक सामने से डाकोर जी से ठाकुरजी का दर्शन करके मनसुख मास्टरजी ट्रेन से उतरे, मनसुख मास्टरजी को देख शिक्षणाधिकारी चोंक गये ? मास्टरजी भी शिक्षणाधिकारी को देखकर घबरा गये, घबराते हुए कहने लगे साहब मुझे अगर पता होता कि आज आप आने वाले हैं तो मैं डाकोर जी ठाकुरजी के दर्शन के लिए नहीं जाता ।शिक्षणाधिकारी साहब ने कहा मनसुखजी आप मजाक कर रहे हैं ? मैं आपकी स्कूल में जांच करने गया आप खुद पूरे दिन हमारे साथ रहे ? ये सब क्या है ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है ?मनसुख मास्टरजी की आंखें भर आईं और रोते रोते कहने लगे साहब मैं समझ गया, मेरे भगवान ने मेरी लाज रखने के लिए, मेरी नौकरी बचाने के लिए मेरे डाकोर जी के ठाकुरजी कृष्ण भगवान को मास्टरजी बनकर नौकरी करनी पड़ी, वाह मेरे ठाकुरजी, भक्तों के लिए आप कितने रूप धारण करके उनका काम करते हैं । शिक्षणाधिकारी और गांव के लोगों ने जब सारी वास्तविकता सुनी सभी की आंखों से आंसू निकल पड़े । मनसुख मास्टरजी ने तुरन्त एक कागज निकाला और उस पर अपना राजीनामा लिखकर शिक्षणाधिकारी को देते हुए बोले मेरे बदले मेरे ठाकुरजी को नौकरी करनी पड़े ऐसी नौकरी मुझे नहीं करनी है ।शिक्षणाधिकारी साहब ने गांव के लोगों ने बहुत समझाया गांव के लोग अपनी भूल पर पछताने लगे मास्टरजी से माफी मांगने लगे । मास्टरजी स्कूल में गये जिस कुर्सी पर मुरलीधर भगवान श्री कृष्ण मेरे ठाकुरजी बैठे थे उसकी चार परिक्रमा कर उसे प्रणाम कर चौंधार आंसुओं से रोने लगे, हे मेरे नाथ अखिल ब्रह्माण्ड के मालिक आज आपको मेरे जैसे तुच्छ मानव के कारण मास्टर का रूप धारण कर नौकरी करनी पड़ी, हे प्रभु आज़ आपने यह साबित कर दिया कि आप अपने भक्तों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हो

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संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मै न होता तो क्या होता ...?अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ पड़ा, तब हनुमान जी को लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण उन्हों ने देखा मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर वे गदगद हो गये। वे सोचने लगे। यदि मैं आगे बढ़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो सीता जी को कौन बचाता...???बहुत बार हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मै न होता तो क्या होता ? परन्तु ये क्या हुआ सीताजी को बचाने का कार्य प्रभु ने रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब हनुमान जी समझ गये कि प्रभु जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं।आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा तो हनुमान जी बड़ी चिंता मे पड़ गये कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नही है और त्रिजटा कह रही है की उन्होंने स्वप्न में देखा है, एक वानर ने लंका जलाई है। अब उन्हें क्या करना चाहिए? जो प्रभु इच्छा।जब रावण के सैनिक तलवार लेकर हनुमान जी को मारने के लिये दौड़े तो हनुमान ने अपने को बचाने के लिए तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो हनुमान जी समझ गये कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया है।आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नही जायेगा पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये तो हनुमान जी सोचने लगे कि लंका वाली त्रिजटा की बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मै कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहां आग ढूंढता, पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया, जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !इसलिये हमेशा याद रखें कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मै न होता तो क्या होता ?

🏵️ रावण के पैर के नीचे का आध्यात्मिक रहस्य 🏵️👉रामायण देख रहे हमारे कई पाठकों के कई प्रश्नों में से एक अहम प्रश्न है कि रावण का जब सिंघासन दिखाया जाता गई,तो रावण के पैरों के पास कोई लेटा रहता है, जिस पर रावण पैर रखता है, वो कौन है ? और रावण के पैरों के नीचे क्यो रहता है ?तो आइए इस प्रश्न के उत्तर को शनि संहिता के अनुसार जानने का प्रयास करते हैं ।कथा के अनुसार लंका का राजारावण निःसंदेह एक महान योद्धा था। उसने अपने शासन में सातों द्वीपों को जीत लिया था। उसे ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था। उसने देवताओं को परास्त किया और नवग्रह उसके राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। यहाँ तक कि वो शनि के सर पर अपना पैर रख कर बैठा करता था। यहाँ तक कि उसने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था। उसका वीर रूप ऐसा था कि उसके साथ अपने अंतिम युद्ध करते समय स्वयं श्रीराम ने कहा था कि आज रावण जिस रौद्ररूप में है कि उसे पराजित करना समस्त देवताओं के साथ स्वयं देवराज इंद्र के लिए भी संभव नहीं है। अपने अहंकार के मद में रावण ने शनि लोक पर चढ़़ाई कर दी और शनिदेव को महाकाल सहित बंदी बना लिया । उसने दोनों को अपने कारावास/पैरों में उलटा लटका कर बंदी बना लिया। वे दोनों अश्रु्धारा बहाते हुए अपने प्रभु शिव का स्मरण करने लगे तब भगवान शिव अपने भक्तों की करुण पुकार सुनकर प्रकट हुए और दोनों को आश्वस्त किया कि वे शीघ्र ही हनुमान के रुप में उनका उद्धार करने आएगें । इ्धर जब रावण का अत्याचार बढ़ने लगा तो भगवान विष्णु ने उसका संहार करने के लिए राम के रुप में और लक्ष्मी ने पृथ्वीपुत्री सीता के रुप में अवतार लिया । कालांतर में जब राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु वनवास लिया तो उनके साथ पृथ्वीपुत्री सीता व अनुज लक्ष्मण वन में रहने लगे।एक दिन रावण की बहन शूर्पनखा वहां आई और अपनी राक्षसी माया फैला कर राम- लक्ष्मण को यु़द्ध के लिए प्रेरित किया । यु़द्ध में रावण के खर, दुषण व त्रिशिरा जैसे शुरमा मारे गए। बदले की भावना से रावण ने सीता का छल से अपहरण कर लिया और लंका में अशोक वाटिका में छुपाकर रख दिया। उन्हीं दिनों राम- लक्ष्मण की भेंट रुद्रावतार हनुमान से हुई और फिर सीता की खोज शुरु हुई। हनुमान सीता की खोज के लिए समुद्र पार करके लंका में प्रवेश किया और अशोक वाटिका में छुपाकर रखी सीता को खोज निकाला । सीता से मिलने के बाद हनुमान ने अशोक वाटिका फल खाने लगे और विनाश मचा दिया । हनुमान को रोकने के लिए रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा । लेकिन हनुमान ने अक्षय कुमार को मार डाला । अंत में मेघनाद ने हनुमान को ब्रह्रापाश में जकड़कर रावण के समक्ष उपसिथत कर दिया और रावण ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगा दी । हनुमान जी ने अपनी पूंछ से लंका का वि्ध्वंस कर दिया । लेकिन हनुमान जी ने देखा लंका जलने पर भी श्याम वर्ण नहीं हुई । तभी उनकी दॄष्टि रावण के कारावास/पैरों में उलटे लटके शनिदेव पर पड़ी । तब शनिदेव ने अपनी व्यथा हनुमान जी को सुनाई और रावण ने उनकी शक्ति को भी कीलित कर दिया है। हनुमान जी ने शनिदेव को मुक्त कर उनकी शक्ति का उत्कीलन कर दिया ।उलटि पलटि लंका सब जारि। फिर तो हनुमान जी के प्रताप व शनिदेव की दॄष्टि पड़ने पर लंका जल कर राख हो गई।इसके बाद राम- रावण यु़द्ध में रावण का अपने वंश सहित विनाश हो गया । बाद में हनुमान जी ने महाकाल और शनिदेवता को रावण के चंगुल से मुक्त करा दिया। हालांकि कुछ विद्वानों का मत है कि शनिदेव को संपूर्ण मुक्ति रावण की मृत्यु के बाद ही मिली थी ।तब शनिदेव हनुमान जी से बोले , “हे महावीर ! मैं आपका सदा ऋणी रहुंगा।” तब हनुमान जी ने शनिदेव दिव्य दॄष्टि प्रदान कर अपने रुद्र रुप के दर्शन कराये। उस समय शनिदेव ने हनुमान जी के चरण पकड़ लिए और प्रेम के अश्रु बहाने लगे। शनिदेव ने हनुमान जी से कहा कि प्रभु मैं आपके भक्तों को कभी भी पीडि़त नहीं करुंगा । जो मनुष्य इस कथा पढ़ेगा या श्रवण करेगा, मैं सदा उसकी रक्षा करुंगा।जय शनिदेव 🚩जय बजरंग बली 🚩जय श्रीराम 🚩प्रेम से बोलिये जय श्री राम

*कैकैयी ऐक अनदेखा पहलू* राजा दशरथ की तीसरी पत्नी कैकेयी भगवान राम से अपने बेटे भरत से भी ज्यादा प्रेम करती थीं। उन्हें राम से बहुत आशाएं थीं। जब कैकेयी ने भगवान राम से 14 वर्षों का वनवास मांगा था तब सबसे ज्यादा भरत हैरान हुए थे क्योंकि वह जानते थे कि माता राम से कितना प्रेम करती हैं। लेकिन आपको जानाकर हैरानी होगी कि देवताओं ने कैकेयी से यह काम करवाया था। इसके पीछे एक रोचक कथा है। कैकेयी ने चौहद वर्ष का वनवास मांगकर यह समझाया कि अगर व्यक्ति युवावस्था में चौदह यानी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आंख, जीभ, त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ) तथा मन, बुद्धि, चित और अहंकार को वनवास (एकान्त आत्मा के वश) में रखेगा तभी अपने अंदर के घमंड और रावण को मार पाएगा। दूसरी बात यह था कि रावण की आयु में केवल 14 ही वर्ष शेष थे। प्रश्न उठता है कि यह बात कैकयी कैसे जानती थी? ये घटना घट तो रही थी अयोध्या में लेकिन योजना देवलोक की थी। कोप भवन में कोप का नाटक हुआ था। कैकेयी को राम पर भरोसा था लेकिन दशरथ को नहीं था। इसलिए उन्होंने पुत्र मोह में अपने प्राण गंवा दिए और कैकेयी हर जगह बदनाम हो गईं। “अजसु पिटारी तासु सिर, गई गिरा मति फेरि।” सरस्वती ने मंथरा की मति में अपनी योजना डाल दी, उसने कैकयी को वही सब सुनाया, समझाया और कहने को उकसाया जो सरस्वती को करवाना चाहती थीं। इसके सूत्रधार स्वयं श्रीराम थे, उन्होंने ही यह योजना तैयार की थी। माता कैकयी यथार्थ जानती हैं। जो नारी युद्ध भूमि में दशरथ के प्राण बचाने के लिए अपना हाथ रथ के धुरे में लगा सकती है, रथ संचालन की कला में दक्ष है, वह राजनैतिक परिस्थितियों से अनजान कैसे रह सकती है? कैकेयी चाहती थी कि मेरे राम का पावन यश चौदहों भुवनों में फैल जाए और यह बिना तप और विन रावण वध के संभव नहीं था। कैकेयी जानती थीं कि अगर राम अयोध्या के राजा बन जाते तो रावण का वध नहीं कर पाएंगे, इसके लिए वन में तप जरूरी थी। कैकयी चाहती थीं कि राम केवल अयोध्या के ही सम्राट न बनकर रह जाएं, वह विश्व के समस्त प्राणियों के हृदयों के सम्राट भी बनें। उसके लिए राम को अपनी साधित शोधित इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को तप के द्वारा तदर्थ सिद्ध करना होगा। रामायण और महाभारत दोनों में ही 14 वर्ष वनवास की बात हुई है। रामायण में भगवान को 14 वर्ष का वनवास भोगना पड़ा था। जबकि महाभारत में पांडवों को 13 वर्ष वनवास और 1 वर्ष अज्ञातवास में गुजारना पड़ा था। दरअसल इसके पीछे ग्रह गोचर भी मानते हैं। उन दिनों मनुष्य की आयु आज के जमाने से काफी ज्यादा होती थी। इसलिए ग्रहों की दशावधि भी ज्यादा होती थी। शनि चालीसा में लिखा है ‘राज मिलत बन रामहि दीन्हा। कैकइहूं की मति हरि लीन्हा।।’ यानी शनि की दशा के कारण कैकेयी की मति मारी गई और भगवान राम को शनि के समयावधि में वन-वन भटकना पड़ा और उसी समय रावण पर भी शनि की दशा आई और वह राम के हाथों मारा गया। यानी शनि ने अपनी दशा में एक को कीर्ति दिलाई तो दूसरे को मुक्ति। जबकि सत्य तो यह है माता कैकयी ने ही स्वयं सारा कलंक लेकर राम को भगवान श्री राम बनाया। नमन है माता कैकेयी को🙏🏻