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Showing posts from July, 2021

बरसाने में एक संत किशोरी जी का बहुत भजन करते थे और रोज ऊपर दर्शन करने जाते राधा रानी के महल में। बड़ी निष्ठा, बड़ी श्रद्धा थी किशोरी जी के चरणों में उन संत की।.एक बार उन्होंने देखा की भक्त राधा रानी को बरसाने मन्दिर में पोशाक अर्पित कर रहे थे....तो उन महात्मा जी के मन में भाव आया की मैंने आज तक किशोरी जी को कुछ भी नहीं चढ़ाया...जय श्री राधे! जय श्री कृष्ण!!.और लोग आ रहे है तो कोई फूल चढ़ाता है, कोई भोग लगाता है, कोई पोशाक पहनाता है और मैंने कुछ भी नही दिया, अरे मै कैसा भगत हूँ ?.तो उन महात्मा जी ने उसी दिन निश्चय कर लिया कि मैं अपने हाथों से बनाकर राधा रानी को सुंदर सी एक पोशाक पहनाऊंगा....ये सोचकर उसी दिन से वो महात्मा जी तैयारी में लग गए और बहुत प्यारी सुंदर सी एक पोशाक बनाई,.पोशाक तैयार होने में एक महीना लगा। कपड़ा लेकर आयें, अपने हाथों से गोटा लगाया और बहुत प्यारी पोशाक बनाई।.सूंदर सी पोशाक जब तैयार हो गई तो वो पोशाक अब लेकर ऊपर किशोरी जी के चरणों में अर्पित करने जा रहा थे।.अब बरसाने की तो सीढिया हैं काफी ऊँची तो वो महात्मा जी उपर चढ़कर जा रहे है तो देखियें कैसे कृपा करती है वो हमारी राधा रानी....आधी सीढियों तक ही पहुँचें होंगे महात्मा जी की तभी बरसाने की एक छोटी सी लड़की उस महात्मा जी को बोलती है कि बाबा ये कहाँ ले जा रहे हो आप ? आपके हाथ में ये क्या है ?.वो महात्मा जी बोले की लाली ये मै किशोरी जी के लिए पोशाक बना के उनको पहनाने के लिए ले जारयो हूँ, बृज भाषा में जबाब दिया।.वो लड़की बोली अरे बाबा राधा रानी पे तो बहोत सारी पोशाक हैं, तो तू ये मोकू देदे ना ....तो महात्मा जी बोले कि बेटी तोकू मै दूसरी बाजार से दिलवा दूंगा। ये तो मै अपने हाथ से बनाकर राधा रानी के लिये लेकर जारयो हूँ तोकू और दिलवा दूँगो।.लेकिन उस छोटी सी बालिका ने उस महात्मा का दुपट्टा पकड़ लिया ....बाबा ये मोकू देदे पर सन्त भी जिद करने लगे की दूसरी दिलवाऊंगा, ये नहीं दूंगा। लेकिन वो बच्ची भी इतनी तेज थी... की संत के हाथ से छुड़ाकर पोशाक ले भागी,.अब महात्मा जी बहुत दुखी हो गए, बूढ़े महात्मा जी अब कहाँ ढूंढे उसको, तो वही सीढियो पर बैठकर रोने लगे ....जब कई संत मंदिर से निकले तो पूछा महाराज क्यों रो रहे हो ? तो सारी बात बताई की जैसे-तैसे तो बुढ़ापे में इतना परिश्रम करके ये पोशाक बनाकर लाया राधा रानी को पहनाता पर वासे पहले ही एक छोटी सी लाली लेकर भाग गई तो क्या करु मै अब ?.वो बाकी संत बोले अरे अब गई तो गई कोई बात नहीं अब कब तक रोते रहोगे चलो ऊपर दर्शन कर लो।.रोना बन्द हुआ लेकिन मन ख़राब था क्योंकि कामना पूरी नहीं हुई तो अनमने मन से राधा रानी का दर्शन करने संत जा रहे थे ....और मन में ये ही सोच रहे है की मुझे लगता है की किशोरी जी की इच्छा नहीं थी , शायद राधा रानी मेरे हाथो से बनी पोशाक पहनना ही नहीं चाहती थी, ऐसा सोचकर बड़े दुःखी होकर जा रहे है।.और अब जाकर अंदर खड़े हुए दर्शन खुलने का समय हुआ और जैसे ही श्री जी का दर्शन खुला, पट खुले तो वो महात्मा क्या देख रहें है कि ....जो पोशाक वो बालिका लेकर भागी थी वो ही पोशाक पहनकर मेरी राधा रानी बैठी हुई है, उसी वस्त्र को धारण करके किशोरी जी बैठी है।.ये देखते ही महात्मा की आँखों से आँसू बहने लगे और महात्मा बोले कि...किशोरी जी मै तो आपको देने ही ला रहा था लेकिन आपसे इतना भी सब्र नहीं हुआ मेरे से छीनकर भागी आप तो।.किशोरी जी ने कहा की बाबा ये केवल वस्त्र नहीं, ये केवल पोशाक नहीं है या में तेरो प्रेम छुपो भयो है और प्रेम को पाने के लिए तो दौड़ना ही पड़ता है, भागना ही पड़ता है।.ऐसी है हमारी राधा रानी प्रेम प्रतिमूर्ति, प्रेम की अद्भुत परिभाषा है।

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"जय" बोलने से मन को शांति मिलती हे , "श्री" बोलने से शक्ति मिलती हे ," राधे" बोलने से पापो सेमुक्ति मिलती हे ....और निरंतर "जयश्री राधे" बोलने से भक्ति मिलती हे , और भक्ति से मेरे कनैया मिलते हे ..................

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*भगवान को भेंट...* पुरानी बात है एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था। जो भी जरुरी काम हो सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था l वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था। एक दिन उस ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा- भाई ! *मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100 रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना।* भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया। कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा। मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है। संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा। फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं। उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ। उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े। उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा l जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा पैसे चढ़ा दिए। सेठ यह तो नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दिए मैं बोल दूंगा कि, पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा। भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं। उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए। सेठ जाग गया सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा ईमानदार है, पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए भगवान को कम चढ़ाए ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा। काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थे ? भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए। सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए। तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुरजी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए l सन्तमत विचार- भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए...Iइस कहानी का सार ये है कि... भगवान को चढ़ावे की जरूरत नही होती है, *सच्चे मन से किसी जरूरतमंद की जरूरत को पूरा कर देना भी ..... भगवान को भेंट चढ़ाने से भी कहीं ज्यादा अच्छा होता है ..!!!*हम उस परमात्मा को क्या दे सकते हैं.....जिसके दर पर हम ही भिखारी हैं..

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ईश्वर पर अटूट आस्था व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने का साहस देती है..

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काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्ष्या,प्रेम,अहंकार आदि सभी भावनाएं एक साथ एक द्वीप पर रहतीे थी। एक दिन समुद्र में एक तूफान आया और द्वीप डूबने लगा। हर भावना डर गई और अपने अपने बचाव का रास्ता ढूंढने लगी। लेकिन प्रेम ने सभी को बचाने के लिए एक नाव बनायी। सभी भावनाओं ने प्रेम का आभार जताते हुए शीघ्रातिशीघ्र नाव में बैठने का प्रयास किया। प्रेम ने अपनी मीठी नज़र से सभी को देखा कोई छूट न जाये। सभी भावनाएँ तो नाव मे सवार थी लेकिन अहंकार कहीं नज़र नहीं आया। प्रेम ने खोजा तो पाया कि, अहंकार नीचे ही था ... ! नीचे जाकर प्रेम ने अहंकार को ऊपर लाने की बहुत कोशिश की,लेकिन अहंकार नहीं माना। ऊपर सभी भावनाएं प्रेम को पुकार रहीं थी,"जल्दी आओ प्रेम!तूफान तेज़ हो रहा है,यह द्वीप तो निश्चय ही डूबेगा और इसके साथ साथ हम सभी की भी यंही जलसमाधि बन जाएगी। कृपया जल्दी करो" "अरे! अहंकार को लाने की कोशिश कर रहा हूँ यदि तूफान तेज़ हो जाय तो तुम सभी निकल लेना।मैं तो अहंकार को लेकर ही निकलूँगा।" प्रेम ने नीचे से ही जवाब दिया और फिर से अहंकार को मनाने की कोशिश करने लगा। लेकिन अहंकार कब मानने वाला था यहां तक कि वह अपनी जगह से हिला ही नहीं। अब सभी भावनाओं ने एक बार फिर प्रेम को समझाया कि अहंकार को जाने दो क्योंकि वह सदा से जिद्दी रहा है। लेकिन प्रेम ने आशा जताई,बोला, "मैं अहंकार को समझाकर राजी कर लूंगा तभी आऊगा......." तभी अचानक तूफान तेज हो गया और नाव आगे बढ़ गई। अन्य सभी भावनाएं तो जीवित रह गईं, लेकिन........ अहंकार के कारण प्रेम मर गया !!

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वैष्णव का सबसे बड़ा लक्षण है सहजता ,सरलता ,वही सच्चा वैष्णव है जो मान अपमान से ऊपर उठकर रह सके। अभिमान के पुत्र का नाम अपमान है। मान से अभिमान का जन्म होता है और अभिमान से अपमान।जिसे न मान की चिंता हो न अपमान की वही साधु है।हम सब रोज मेरे सरकार का चरित्र पढ़ते है पर उसका अनुकरण नही करते उससे कुछ सीखते नहीं। जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तो सभी को अच्छे 2 कार्य दिये गये पर मेरे सरकार ने जूठी पत्तल उठाने का काम लिया ।कोई जब भोज न करता तो ठाकुर झट उसकी पत्तल सर पर रखकर ले जाते। अर्जुन के सारथी बन गये कोई मान की चिंता नहीं। हम सभी यदि उनके हैं तो उन्ही की तरह बनना पड़ेगा।

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क्या आश्चर्यनही होता तुम्हे ? कि इतने बड़े विराट ब्रह्मांड में तुम्हारे जैसाकोई दूसरा नही है,,,,,पहले भी कभी नही थाऔर नआगे कभी होगा। इससे बड़ा प्रमाणक्याहो सकता हैईश्वर का ????? और ये भीसत्य है किजब कोईरचनाकारकोई रचनाकरता है तोउसमें अपनाअंश जरूरछोड़ देता है !!!!!इसलिएईश्वर ने जोतुम्हारीरचना की हैउसमें भीअपना अंशजरूर छोड़ा है !!!!!और वोदिखाई देता हैतुम्हारे प्रेम,संवेदनशीलताऔर करुणा के रूप मे ।

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निरंतर देने वाला कभी खाली नहीं होता,और गहराई में गोता लगाने वाला ही मोती पाता है

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