*यह पानी... के बुलबुलों... जैसा जीवन... रोज बदलता जाता है... यहां कुछ भी छुपा... नहीं है... तो जब बुढ़ापा... आएगा... और उसके पहले... कदम... तुम सुनोगे... दुख होगा... कि हार गया...**हारे... इत्यादि कुछ भी नहीं... जीत की आकांक्षा... के कारण हार... का खयाल... पैदा हो रहा है... यह भ्रांति... इसलिए बन रही है... क्योंकि तुम जवान... रहना चाहते थे... और प्रकृति... किसी चीज... को ठहरने नहीं देती... प्रकृति बहाव है... और तुमने प्रकृति... के विपरीत... कुछ चाहा था... जो संभव... नहीं है... संभव नहीं... हो सकता है... न हुआ है... और न कभी होगा... जो संभव... नहीं हो सकता... उसकी आकांक्षा... में दुख है...**फिर तुम बुड्ढे... हो जाओगे... तब भी नहीं समझोगे... अब तुम मरना... नहीं चाहते... पहले जवानी...पकड़ी थी... अब बुढ़ापे... को पकड़ते हो... तो कुछ सीखे नहीं... देखा कि बचपन था... वह भी गया... जवानी थी... वह भी गयी... बुढ़ापा भी जाएगा... जीवन भी जाएगा... मौत भी आएगी... और जब जीवन... ही चला गया... तो मौत... भी जाएगी... घबराओ मत... सब बह रहा है... यहां न जीवन... रुकता है... न मौत... रुकती है...**इस प्रवाह... को जो सहज... भाव से स्वीकार... कर लेता है... जो रत्तीभर... भी इससे संघर्ष... नहीं करता... जो कहता है... जो हो... मैं उससे...राजी हूँ... जैसा हो... उससे मैं राजी हूँ... कभी धन हो... तो धन... से राजी हूँ... और कभी दरिद्रता... आ जाए... तो दरिद्रता... से राजी हूँ... कभी महल... मिल जायें... तो महल... में रह लूँगा... कभी महल... खो जाएं... तो उनके लिए रोता... नहीं रहूंगा... लौटकर पीछे... देखूंगा नहीं... जो होगा... जैसा होगा... उससे अन्यथा... मेरे भीतर कोई.. कामना न करूंगा...**फिर कैसा दुख ?... फिर दुख... असंभव है... *राधे राधे*
