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Showing posts from June, 2021
विश्वास का यह अर्थ नहीं जो मैं चाहता हूँ वही भगवान करेंगे,विश्वास का अर्थ है कृष्ण वो ही करेंगे जो मेरे लिए सही होगा...!
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मत सोच इतना... जिन्दगी के बारे में जिसने जिन्दगी दी है... उसने भी तो कुछ सोचा होगा।
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अगर कोई आपसे उम्मीद करता है,तो ये उसकी मजबूरी नहीं, आपके साथ लगाव और विश्वास है.
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समझदार वो नही होता जो... हर बात का जवाब दे सकता है... समझदार वो होता है जिसे... ये समझ होती है कि क्या बोलना है और... क्या नही बोलना है ।
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चाबी से खुला ताला बार बार काम मे आता है, और हथौड़े से खुलने पर दुबारा काम का नही रहता, इसी तरह संबंधों के ताले को क्रोध के हथौड़े से नहीं, बल्कि प्रेम की चाबी से खोलें |
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महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी .... ! गिद्ध , कुत्ते , सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में *द्वापर का सबसे महान योद्धा* *"देवव्रत" (भीष्म पितामह)* शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था -- अकेला .... !तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची , "प्रणाम पितामह" .... !!भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी , बोले , " आओ देवकीनंदन .... ! स्वागत है तुम्हारा .... !! मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था" .... !!कृष्ण बोले , "क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप" .... !भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले," पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव ... ? उनका ध्यान रखना , परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है" .... !कृष्ण चुप रहे .... !भीष्म ने पुनः कहा , "कुछ पूछूँ केशव .... ? बड़े अच्छे समय से आये हो .... ! सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय " .... !!कृष्ण बोले - कहिये न पितामह ....! एक बात बताओ प्रभु ! तुम तो ईश्वर हो न .... ?कृष्ण ने बीच में ही टोका , "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं ... मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह ... ईश्वर नहीं ...." भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े .... ! बोले , " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे .... !! "कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले .... " कहिये पितामह .... !"भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया ! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या .... ?" "किसकी ओर से पितामह .... ? पांडवों की ओर से .... ?" " कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया ! पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था .... ? आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार , दुःशासन की छाती का चीरा जाना , जयद्रथ और द्रोणाचार्य के साथ हुआ छल , निहत्थे कर्ण का वध , सब ठीक था क्या .... ? यह सब उचित था क्या .... ?" इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह .... ! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया ..... !! उत्तर दें दुर्योधन, दुःशाशन का वध करने वाले भीम , उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन .... !! मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह .... !! "अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण .... ? अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है .... ! मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण .... !" "तो सुनिए पितामह .... ! कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ .... ! वही हुआ जो हो होना चाहिए .... !""यह तुम कह रहे हो केशव .... ? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ....? यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया ..... ? " *"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है .... !* हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है .... !! राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था .... ! हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह .... !!"" नहीं समझ पाया कृष्ण ! तनिक समझाओ तो .... !"" राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह .... ! राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था .... !! तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण, मंदोदरी, माल्यावान जैसे सन्त हुआ करते थे ..... ! तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे .... ! उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था .... !! इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया .... ! किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं .... !! उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह .... ! पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो .... !!" "तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव .... ? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा .... ? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा ..... ??"*" भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह .... !* *कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा .... !* *वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा .... नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा .... !* *जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह* .... ! तब महत्वपूर्ण होती है धर्म की विजय , केवल धर्म की विजय .... ! *भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह* ..... !!""क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव .... ? और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ..... ?" *"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह .... !* *ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ..... !*केवल मार्ग दर्शन करता है* *सब मनुष्य को ही स्वयं करना पड़ता है .... !* आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न .... ! तो बताइए न पितामह , मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या ..... ? सब पांडवों को ही करना पड़ा न .... ? यही प्रकृति का संविधान है .... ! युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से .... ! यही परम सत्य है ..... !!"भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे .... ! उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी .... ! उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है .... कल सम्भवतः चले जाना हो ... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण .... !"*कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था* .... !*जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है ....।।*धर्मों रक्षति रक्षितः*
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आकार से महत्व ज्यादा परोपकार का है। जो प्राप्त है वो पर्याप्त है। जिसका मन मस्त है उसके पास समस्त है।
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हैरानी की बात हैआप घृणा के बीज बोयेंऔर प्रेम की फसल काटना चाहें।आप सब को गालियां देंऔर सारे आकाश से आपके ऊपर शुभाशीष बरसने लगे।यह असंभव है।जीवन का सूत्र है कि जो आप देते हैं,वही वापस लौटकर आता है।चारों ओर से आपकी ही फेंकी गई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर आपको मिलती हैं।आप जो भी बो रहे हैं ,उसकी फसल आपको काटनी है।इंच -इंच का हिसाब है कुछ भी बेहिसाब नहीं है। !...यदि आपको हर चीज़ सकारात्मक तरीके से लेने की आदत है तो आप ज़िन्दगी के हर पल का आनंद उठाएंगे फिर चाहे वो सुख हो या कष्ट...!
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भले इन्सान तुम अपना सच्चा मकसद याद रखते हुए परमाथ॔ के मार्ग पर टिके रहो और हर समय अपने मन और इंद्रियों पर पहरा देते रहो ताकि तुम बुराइयों और पापों से दुर रह सको और हर वक्त जागते रहो इस संसार मे तो हमे सभी जागते हुए दिखाई देते है पर असल में वे सोये हुए है क्यों की वे प्रभु के सच्चे ज्ञान से बेखबर है अनजान है वे दुनियावी विषयों-विकारों द्वारा लूटे जा रहे है क्यों की वे मालिक की ओर से बेखबर है जागने को तो उल्लू भी जागता है जो उलटा होकर साँस लेता है पर उसे जागते हुए भी सूरज का प्रकाश घोर अँधरे जैसा लगता है ऐसे जागने से क्या फायदा? असल में वे लोग धन्य है जो हमेशा मालिक के प्रेम में मग्न रहते हुए जागते है.....
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!! प्रार्थना !! यह भक्ति का पूरा शास्त्र है कि आप मांगो भी और जल्दी भी न करो। प्रार्थना भी हो, और होंठो पर मांग भी न आये !परम सिद्ध सन्त रामदास जी जब प्रार्थना करते थे तो कभी उनके होंठ नही हिलते थे !शिष्यों ने पूछा - हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं।आपके होंठ नहीं हिलते ? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं। आप कहते क्या है अन्दर से ?क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे, तो होंठो पर थोड़ा कंपन आ ही जाता है। चहेरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता !सन्त रामदास जी ने कहा - मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट को खडे़ देखा, और एक भिखारी को भी खडे़ देखा !वह भिखारी बस खड़ा था। फटे--चीथडे़ थे शरीर पर। जीर्ण - जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो !शरीर सूख कर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थी। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो !वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा -तब गिरा !सम्राट उससे बोला - बोलो क्या चाहते हो ?उस भिखारी ने कहा - अगर मेरे आपके द्वार पर खडे़ होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं !क्या कहना है और ? मै द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। "सन्त रामदास जी ने कहा -उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगें । मैं क्या कहूं ?अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे ?अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते, तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे ?अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची भक्ति के लक्षण है यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता ! आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है !
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एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु से यह प्रश्न किया। गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे। उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया: पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥पाठ पूरा होने के बाद गुरु ने शिष्यों से कहा कि वे पुस्तक देखकर श्लोक कंठस्थ कर लें।एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं ? उस शिष्य ने पूरा श्लोक शुद्ध-शुद्ध गुरु को सुना दिया। फिर भी गुरु ने सिर 'नहीं' में हिलाया, तो शिष्य ने कहा कि" वे चाहें, तो पुस्तक देख लें; श्लोक बिल्कुल शुद्ध है।” गुरु ने पुस्तक देखते हुए कहा“ श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो तुम्हारे दिमाग में कैसे चला गया? शिष्य कुछ भी उत्तर नहीं दे पाया।तब गुरु ने कहा “ पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है। तुमने जब श्लोक पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे दिमाग में प्रवेश कर गया, उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मस्तिष्क में रहता है। और जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के स्थूल रूप के श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं, और इससे स्थूल रूप के वस्तु में कोई कमी नहीं होती। उसी को हम *प्रसाद* के रूप में ग्रहण करते हैं।शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया।
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मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है ? परम्परा हैं कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है ? यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है ~ *अनायासेन मरणम् ,* *बिना देन्येन जीवनम्।* *देहान्त तव सानिध्यम् ,* *देहि मे परमेश्वरम्॥* इस श्लोक का अर्थ है ~ *अनायासेन मरणम्* अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हों चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं। *बिना देन्येन जीवनम्* अर्थात् परवशता का जीवन ना हो। कभी किसी के सहारे ना रहाना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें। *देहांते तव सानिध्यम* अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले। *देहि में परमेशवरम्* हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना। *भगवान से प्रार्थना करते हुऐ उपरोक्त श्र्लोक का पाठ करें।* गाड़ी, बंगला, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है। *'प्रार्थना' शब्द के 'प्र' का अर्थ होता है 'विशेष' अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और 'अर्थना' अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।* मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, श्रृंगार का, *संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।* *दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया हैं उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुन: दर्शन करे |
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मेरा अधूरा ज्ञान :- यदि आपके किसी निर्णय से... सिर्फ आप अकेले ही खुश हो तो समझ जाइयेगा की... उस निर्णय में कहीं न कहीं... अहंकार भी छुपा हुआ है।
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बदल जाओ वक्त के साथ या फिर वक्त बदलना सीखो मजबूरीयों को मत कोसो हर हाल में चलना सीखो यही जीवन का संघर्ष है बस ये तुम सीखो प्रभु तुम्हारे साथ है|
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एक ज्ञानी व्यक्ति और संसारी में यही फर्क है कि ज्ञानी मरते हुए भी हँसता है और संसारी जीते हुए भी मरता है। ज्ञान हँसना नहीं सिखाता, बस रोने का कारण मिटा देता है। ऐसे ही अज्ञान रोना नहीं देता बस हँसने के कारणों को मिटा देता है। ज्ञानी इसलिए हर स्थिति में प्रसन्न रहता है कि वो जानता है जो मुझे मिला, वह कभी मेरा था ही नहीं और जो कुछ मुझसे छूट रहा है, वह भी मेरा नहीं है। परिवर्तन ही दुनिया का शाश्वत सत्य है। संसारी इसलिए रोता है, उसकी मान्यता में जो कुछ उसे मिला है उसी का था और उसी के दम पर मिला है। जो कुछ छूट रहा है सदा सर्वदा यह उस पर अपना अधिकार मान कर बैठा है। बस यही अशांत रहने का कारण है। मूढ़ता में नहीं ज्ञान में जियो ताकि आप हर स्थिति में प्रसन्न रह सकें।
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संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मै न होता तो क्या होता ...?अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ पड़ा, तब हनुमान जी को लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण उन्हों ने देखा मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर वे गदगद हो गये। वे सोचने लगे। यदि मैं आगे बढ़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो सीता जी को कौन बचाता...???बहुत बार हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मै न होता तो क्या होता ? परन्तु ये क्या हुआ सीताजी को बचाने का कार्य प्रभु ने रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब हनुमान जी समझ गये कि प्रभु जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं।आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा तो हनुमान जी बड़ी चिंता मे पड़ गये कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नही है और त्रिजटा कह रही है की उन्होंने स्वप्न में देखा है, एक वानर ने लंका जलाई है। अब उन्हें क्या करना चाहिए? जो प्रभु इच्छा।जब रावण के सैनिक तलवार लेकर हनुमान जी को मारने के लिये दौड़े तो हनुमान ने अपने को बचाने के लिए तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो हनुमान जी समझ गये कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया है।आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नही जायेगा पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये तो हनुमान जी सोचने लगे कि लंका वाली त्रिजटा की बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मै कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहां आग ढूंढता, पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया, जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !इसलिये हमेशा याद रखें कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मै न होता तो क्या होता ?
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जय श्री राधे कृष्ण प्रभु का स्मरण ही संपत्ति है, और विस्मरण ही विपत्ति है।‘विपद्विस्मरणं विष्णो: संपन्नारायण स्मृति:।
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पीड़ा तन की हो या मन की जब तक भोगनी लिखी है तब तक तो भोगनी ही पड़ेगी, जितने गहरे भाव से बुरा कर्म किया गया होगा उतनी ही गहराई से कर्मभोग प्रभावित और प्रताड़ित करेगा और उतने ही लम्बे समय तक उसे भुगतना पड़ेगा। कर्मफल से कोई बच नहीं सकता, जब तक लेन देन चुकता नहीं होगा तब तक उससे छुटकारा नहीं होगा। ऋणानुबन्ध के पूर्ण होते ही सारी पीड़ा समाप्त होगी, जैसी भी पीड़ा हो घबराओ मत, पीड़ा से अपना ध्यान हटा लो, समय सभी पीड़ाओं को ठीक करेगा।जो दिन रात भगवान श्रीकृष्ण का नाम लेता हैं उन्हें याद करता हैं उन्हें अपने में बसा लेता हैं वह हरि का सच्चा दास हो जाता है। वह शीघ्र ही समस्त पीड़ाओं से मुक्त हो जाता हैं।
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हम गुस्से में चिल्लाते क्यों हैं ? ( पढ़ने के बाद चिल्लाना अवश्य भूल जाओगे ) एक बार एक सन्त अपने शिष्यों के साथ बैठे थे,अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा । बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर जोर से चिल्लाते क्यों हैं ?शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : हम अपनी शान्ति खो चुके होते हैं, इसलिए चिल्लाने लगते हैं । संत ने मुस्कराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे धीरे भी तो बात कर सकते हैं ।आखिर वे चिल्लाते क्यों हैं? कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया , लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया ।वह बोले : जब दो लोग एक दूसरे नाराज होते हैं तो उनके दिलों में दूरियां बहुत बढ जाती है ,जब दूरियां बढ़ जाय तो आवाज को पहुँचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है । दूरियां जितनी ज्यादा होंगी ,उतना तेज चिल्लाना पड़ेगा ।दिलों की यह दूरियां ही दो गुस्साये लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती है । वह आगे बोले : जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और बड़े धीरे धीरे बात करते हैं । प्रेम दिलों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुँचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं । जब दो लोगों में प्रेम और भी प्रगाढ़ होता है तो वह फुसफुसा कर भी एक दूसरे तक अपनी बात पहुँचा लेते हैं । इसके बाद प्रेम की एक अवस्था यह भी आती है कि फुसफुसाने की भी जरूरत नहीं पड़ती ।एक दूसरे की आंखों में देखकर ही समझ आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है ।शिष्यों की तरफ देखते हुए संत बोले : अब जब भी कभी बहस करें तो दिलों की दूरियों को न बढ़ने दें । शान्त चित और धीमी आवाज में ही बात करें ।ध्यान रखें कि कहीं दूरियां इतनी न बढ जाए कि वापस आना मुमकिन न हो ,।। जय श्री कृष्णा |
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गलत होकर खुद को सही साबित करना उतना मुश्किल नहीं जितना सही होकर खुद को सही साबित करना।। जिस प्रकार बिना घिसे हीरे पर चमक नहीं आती,ठीक उसी तरह हीरा परखने वाले से पीडा़ परखने वाला ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि किसी की पीड़ा की परख करने वाला इन्सान ही असल ज़िंदगी का जौहरी होता है।
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हम सब माँ की संतान हैं पवित्रता, सुख , शांति , आनंद , प्रेम तथा ईश्वरीय ज्ञान का सर्वोत्तम उपहार सकरात्मक शुद्ध विचार दिया है हमारे पास नकारात्मक संकल्प समाप्त कर सकारात्मक संकल्पों का तथा शुभ तथा श्रेष्ठ संकल्पों की रचना करें चारों ओर का वातावरण शान्त तथा शीतल बनायें मन में श्रद्धा का दीप जलायें हम सब मन के अँधेरा दूर भगायेंईश्वर को किसी ने नही देखापर ईश्वर ने भी माँ को देखा हैंमां के एहसासों को तुम धड़कन में सुनना
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*जय श्री कृष्णा*तुम खुशबू की तरह हो तुम्हें पकड़ तो नहीं सकता पर भाव में तो रख सकता हूं तेरी खुशबू ही है जो बंया होती है ,,,भाव महक जाते हैं जब तू मन को बंसी बनाता है दिल के आंगन में प्रेम खिल जाते हैं जब तू भाव में उतर आता है एक सुकून है एक ऐसा एहसास जो है मेरे पास *प्यारे* जब तेरी चर्चा तुझसे ही करते हैं
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द्रौपदी के स्वयंवर में जाते वक्त "श्री कृष्ण" ने अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि : हे पार्थ , तराजू पर पैर संभलकर रखना, संतुलन बराबर रखना, लक्ष्य मछली की आंख पर ही केंद्रित हो उसका खास खयाल रखना। तो अर्जुन ने कहा : "हे प्रभु" सबकुछ अगर मुझे ही करना है , तो फिर आप क्या करोगे ??वासुदेव हंसते हुए बोले : हे पार्थ , जो आप से नहीं होगा वह में करुंगा। पार्थ ने कहा : प्रभु ऐसा क्या है जो मैं नहीं कर सकता ??वासुदेव फिर हंसे और बोले : जिस अस्थिर , विचलित , हिलते हुए पानी में तुम मछली का निशाना साधोगे , उस विचलित "पानी" को स्थिर "मैं" रखुंगा !!कहने का तात्पर्य यह है कि आप चाहे कितने ही निपुण क्यूँ ना हो , कितने ही बुद्धिमान क्यूँ ना हो , कितने ही महान एवं विवेकपूर्ण क्यूँ ना हो , लेकिन आप स्वंय हरेक परिस्थिति के उपर पूर्ण नियंत्रण नहीँ रख सकते .... आप सिर्फ अपना प्रयास कर सकते हैं , लेकिन उसकी भी एक सीमा है।और जो उस सीमा से आगे की बागडोर संभालता है उसी का नाम "भगवान" है ....!!!
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*अपने हिस्से की खुशियों में से कुछ खुशियाँ बाँटकर जो मुस्कुराया है* *यकीन मानिए उसे परमात्मा ने समय समय पर हर संकट से बचाया है!!*जय श्री कृष्णा*
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जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा,तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता. काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता निज कृत करम भोगु सब भ्राता 🙏
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एक विश्वास से भरी *प्रार्थना*.. *अंधकार* के समस्त बंधनों को, तोड़ने का *सामर्थ्य* रखती है.! जय श्री कृष्णा
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भूल ओर भगवान ! मानो तो ही दिखते है।💓 जय श्री कृष्णा 💓
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**ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ..!!*जय श्री कृष्णा *
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मेरी किस्मत और करम दोनों बहुत अच्छे हैं इसीलिए तो परमात्मा ने मुझे आप जैसे अच्छे इंसान से जोड़ दिया । जय श्री कृष्णा 💓
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